Translate

महाराष्ट्र के 5 ऐसे नेता जो हिंदी भाषा के खुलकर विरोध में हैं?

भारत एक बहुभाषी देश है, जहाँ हर राज्य की अपनी अनूठी भाषा और संस्कृति है। भाषा का मुद्दा अक्सर संवेदनशील रहा है, और महाराष्ट्र भी इससे अछूता नहीं है। हाल के दिनों में हिंदी भाषा को लेकर महाराष्ट्र में एक बार फिर गरमागरम बहस छिड़ गई है। यह बहस तब और तेज हो गई जब महाराष्ट्र सरकार ने स्कूलों में हिंदी को तीसरी अनिवार्य भाषा बनाने का फैसला किया, जिसके बाद राज्य के कई प्रमुख नेताओं ने इसका कड़ा विरोध किया।

यह लेख उन 5 प्रमुख महाराष्ट्रीयन नेताओं पर प्रकाश डालेगा जिन्होंने हिंदी भाषा के कथित थोपे जाने का खुलकर विरोध किया है। यह समझना महत्वपूर्ण है कि उनका विरोध अक्सर हिंदी भाषा के प्रति घृणा से नहीं, बल्कि मराठी भाषा और संस्कृति की पहचान और संरक्षण की चिंता से उपजा है।

महाराष्ट्र के 5 ऐसे नेता जो हिंदी भाषा के खुलकर विरोध में हैं?


1. राज ठाकरे (महाराष्ट्र नवनिर्माण सेना - MNS)

राज ठाकरे, महाराष्ट्र नवनिर्माण सेना (MNS) के प्रमुख, हिंदी भाषा के कथित थोपे जाने के सबसे मुखर विरोधियों में से एक रहे हैं। उनका मानना है कि हिंदी को महाराष्ट्र पर थोपना मराठी भाषा और संस्कृति के लिए खतरा है। जून 2024 में, जब महाराष्ट्र सरकार ने स्कूलों में हिंदी को अनिवार्य तीसरी भाषा बनाने का निर्णय लिया, तो राज ठाकरे ने इसका कड़ा विरोध किया। उन्होंने इस फैसले को मराठी अस्मिता पर हमला बताया और अपनी पार्टी के कार्यकर्ताओं के साथ विरोध प्रदर्शनों में भाग लिया। कुछ रिपोर्टों के अनुसार, उनकी पार्टी ने हिंदी की किताबें जलाकर भी अपना विरोध दर्ज कराया।
राज ठाकरे का रुख हमेशा से मराठी मानुस और मराठी भाषा के अधिकारों की रक्षा पर केंद्रित रहा है। उनका तर्क है कि महाराष्ट्र में मराठी को प्राथमिकता मिलनी चाहिए और किसी भी अन्य भाषा को जबरन थोपा नहीं जाना चाहिए। उनका यह विरोध केवल स्कूलों तक सीमित नहीं है, बल्कि वे सार्वजनिक स्थानों पर हिंदी के अत्यधिक उपयोग और महाराष्ट्र में हिंदी भाषी प्रवासियों की बढ़ती संख्या पर भी चिंता व्यक्त करते रहे हैं।

2. उद्धव ठाकरे (शिवसेना - उद्धव बालासाहेब ठाकरे - Shiv Sena UBT)

उद्धव ठाकरे, शिवसेना (उद्धव बालासाहेब ठाकरे) गुट के प्रमुख, ने भी हिंदी भाषा के थोपे जाने का विरोध किया है। हालांकि, उनकी पार्टी ने यह स्पष्ट किया है कि वे हिंदी भाषा के खिलाफ नहीं हैं, बल्कि स्कूलों में इसे अनिवार्य बनाने के खिलाफ हैं। जून 2024 में, उद्धव ठाकरे ने राज ठाकरे के साथ एक रैली में मंच साझा किया, जो हिंदी थोपे जाने के विरोध में आयोजित की गई थी। यह 20 साल बाद था जब दोनों चचेरे भाई एक साथ एक मंच पर आए थे, जो इस मुद्दे की गंभीरता को दर्शाता है।
संजय राउत, जो शिवसेना (UBT) के एक प्रमुख नेता हैं, ने भी कई बार स्पष्ट किया है कि उनकी पार्टी का विरोध हिंदी भाषा के थोपे जाने के खिलाफ है, न कि स्वयं हिंदी भाषा के खिलाफ। उनका कहना है कि महाराष्ट्र में मराठी को प्राथमिकता मिलनी चाहिए और बच्चों पर किसी भी भाषा को जबरन थोपा नहीं जाना चाहिए। उनका यह रुख तमिलनाडु के मुख्यमंत्री एम.के. स्टालिन के हिंदी विरोधी रुख से अलग है, क्योंकि वे हिंदी को पूरी तरह से खारिज नहीं करते, बल्कि उसके अनिवार्यकरण का विरोध करते हैं।

3. शरद पवार (राष्ट्रवादी कांग्रेस पार्टी - शरदचंद्र पवार - NCP-SP)

शरद पवार, राष्ट्रवादी कांग्रेस पार्टी (शरदचंद्र पवार) गुट के प्रमुख, और उनकी पार्टी ने भी हिंदी भाषा के कथित थोपे जाने का विरोध किया है। उनकी पार्टी ने 5 जुलाई को हिंदी थोपे जाने के खिलाफ प्रस्तावित विरोध मार्च का समर्थन किया है। सुप्रिया सुले, जो NCP-SP की कार्यकारी अध्यक्ष हैं, ने भी महाराष्ट्र सरकार के हिंदी को अनिवार्य तीसरी भाषा बनाने के फैसले की आलोचना की थी, इसे एक
साजिश बताया था।
शरद पवार ने स्पष्ट किया है कि वे प्राथमिक शिक्षा में हिंदी को अनिवार्य बनाने के खिलाफ हैं, लेकिन कक्षा 5 के बाद हिंदी सीखने में उन्हें कोई आपत्ति नहीं है। उनका तर्क है कि बच्चों के भविष्य को दांव पर नहीं लगाया जा सकता और मराठी भाषा की पहचान को बनाए रखना महत्वपूर्ण है। उनकी पार्टी का मानना है कि भाषा थोपने से क्षेत्रीय पहचान और संस्कृति को नुकसान होता है।

4. अजीत पवार (राष्ट्रवादी कांग्रेस पार्टी - अजित पवार गुट)

अजीत पवार, जो राष्ट्रवादी कांग्रेस पार्टी के एक अन्य गुट का नेतृत्व करते हैं, ने भी हिंदी को प्राथमिक कक्षाओं में अनिवार्य बनाने के खिलाफ अपना रुख स्पष्ट किया है। हालांकि वे वर्तमान सरकार का हिस्सा हैं, उन्होंने इस मुद्दे पर अपनी असहमति व्यक्त की है। उनका मानना है कि माता-पिता को यह चुनने का अधिकार होना चाहिए कि उनके बच्चे कौन सी भाषा सीखते हैं, और किसी भी भाषा को जबरन थोपा नहीं जाना चाहिए।
अजीत पवार ने कहा है कि उनकी पार्टी किसी भी भाषा के खिलाफ नहीं है, लेकिन वे मराठी भाषा और महाराष्ट्र की भाषाई पहचान के संरक्षण को प्राथमिकता देते हैं। उनका यह रुख दर्शाता है कि भाषा का मुद्दा महाराष्ट्र में राजनीतिक स्पेक्ट्रम में व्यापक रूप से संवेदनशील है, और विभिन्न दलों के नेता भी इस पर एक समान चिंता साझा करते हैं।

5. आदित्य ठाकरे (शिवसेना - उद्धव बालासाहेब ठाकरे - Shiv Sena UBT)

आदित्य ठाकरे, उद्धव ठाकरे के बेटे और शिवसेना (UBT) के युवा नेता, ने भी हिंदी बनाम मराठी विवाद को कम करने की कोशिश की है, लेकिन साथ ही उन्होंने हिंदी थोपे जाने के खिलाफ अपनी पार्टी के रुख का समर्थन किया है। उन्होंने कहा है कि महाराष्ट्र में हिंदी बनाम मराठी का कोई मुद्दा नहीं है, और यह कुछ निहित स्वार्थों द्वारा फैलाया जा रहा है। हालांकि, उन्होंने यह भी स्पष्ट किया है कि उनकी पार्टी हिंदी को अनिवार्य बनाने के खिलाफ है, खासकर प्राथमिक शिक्षा के स्तर पर।
आदित्य ठाकरे ने जोर दिया है कि महाराष्ट्र में मराठी भाषा को प्राथमिकता मिलनी चाहिए और किसी भी भाषा को थोपा नहीं जाना चाहिए। उनका यह रुख दर्शाता है कि युवा पीढ़ी के नेता भी इस भाषाई संवेदनशीलता को समझते हैं और मराठी पहचान के संरक्षण के लिए प्रतिबद्ध हैं।



महाराष्ट्र में भाषा विवाद का ऐतिहासिक संदर्भ

महाराष्ट्र में भाषा का मुद्दा कोई नया नहीं है। राज्य के गठन के बाद से ही मराठी भाषा और संस्कृति के संरक्षण को लेकर विभिन्न आंदोलन और राजनीतिक बहसें होती रही हैं। शिवसेना और महाराष्ट्र नवनिर्माण सेना जैसी पार्टियों का उदय भी काफी हद तक मराठी अस्मिता और भाषा के संरक्षण के इर्द-गिर्द हुआ है।
हिंदी को लेकर विरोध अक्सर इस डर से उपजा है कि यह मराठी भाषा के महत्व को कम कर देगा और राज्य की भाषाई पहचान को कमजोर करेगा। यह केवल भाषा का मुद्दा नहीं है, बल्कि यह रोजगार, संस्कृति और राजनीतिक प्रतिनिधित्व से भी जुड़ा है। जब भी हिंदी को थोपने का प्रयास किया गया है, महाराष्ट्र में राजनीतिक और सामाजिक स्तर पर इसका कड़ा विरोध हुआ है।

निष्कर्ष

महाराष्ट्र में हिंदी भाषा का मुद्दा एक जटिल और संवेदनशील विषय है, जो केवल भाषाई पहचान तक सीमित नहीं है, बल्कि इसमें सांस्कृतिक, आर्थिक और राजनीतिक आयाम भी शामिल हैं। राज ठाकरे, उद्धव ठाकरे, शरद पवार, अजीत पवार और आदित्य ठाकरे जैसे प्रमुख नेताओं ने हिंदी के कथित थोपे जाने का खुलकर विरोध किया है। उनका यह विरोध हिंदी भाषा के प्रति घृणा से नहीं, बल्कि मराठी भाषा और संस्कृति के संरक्षण और राज्य की भाषाई पहचान को बनाए रखने की गहरी चिंता से उपजा है।

जून 2024 में स्कूलों में हिंदी को अनिवार्य बनाने के सरकारी फैसले के खिलाफ इन नेताओं का एकजुट विरोध इस बात का प्रमाण है कि महाराष्ट्र में भाषा का मुद्दा कितना महत्वपूर्ण है। यह दर्शाता है कि राज्य के नेता अपनी भाषाई विरासत की रक्षा के लिए कितने प्रतिबद्ध हैं। भविष्य में भी, यह मुद्दा महाराष्ट्र की राजनीति में एक महत्वपूर्ण भूमिका निभाता रहेगा, और यह देखना दिलचस्प होगा कि यह कैसे विकसित होता है। एक बात स्पष्ट है: महाराष्ट्र अपनी भाषाई पहचान को लेकर समझौता करने को तैयार नहीं है।

एक टिप्पणी भेजें

0 टिप्पणियाँ