हाल ही में भारतीय निर्वाचन आयोग द्वारा लोकसभा क्षेत्रों के उम्मीदवारों के लिये चुनावी खर्च की सीमा 70 लाख से बढ़ाकर 95 लाख(अधिकतम) कर दी है।
इस खर्च की बढ़ोत्तरी के पीछे चुनाव आयोग ने लागत मुद्रास्फीति में वृद्वि(मंहगाई का बढ़ना) को आधार बताया है।
लागत मुद्रास्फीति(Cost Inflation) - इसका प्रयोग मंहगाई के कारण वर्ष दर वर्ष वस्तुओं और सम्पत्ति की कीमतों में वृद्वि का अनुमान लगाने के लिये किया जाता है यानी समय के साथ मंहगाई की दर से कीमतों में वृद्वि होना।
उपभोक्ता मुद्रास्फीति सूचकांक(Consumer Inflation Index)- कीमतों में वृद्वि की गणना करने के लिये पिछले वर्ष में वस्तुओं और सेवाओं की एक ही बास्केट की लागत के साथ वस्तुओं व सेवाओं की वर्तमान कीमत की तुलना की जाती है।
इसके अलावा विधानसभा क्षेत्रों के लिये चुनावी खर्च के लिये 20 लाख से लेकर 28 लाख रूपये से बढ़ाकर 28 लाख से लेकर 40 लाख रूपये(राज्यों के आधार पर) कर दी गयी थी।
चुनावी खर्च वह राशि होती है जिसका उपयोग उम्मीदवार द्वारा कानून के दायरे में रहकर किया जाता है जैसे सार्वजनिक बैठकें, रैलियां, विज्ञापन, पोस्टर, बेनर वाहन आदि के संदर्भ में किया जाता है।
लोक प्रतिनिधित्व अधिनियम, 1951 की धारा 77 के अनुसार प्रत्येक उम्मीदवार को अपने नामांकन की तारीख से लेकर चुनावी परीणाम आने की तारीख के भीतर किये गये सभी खर्चों का विवरण निर्वाचन आयोग को प्रस्तुत करना होता है।
यदि उम्मीदवार द्वारा खर्च का विवरण निर्वाचन आयोग द्वारा निर्धारित प्रारूप में प्रस्तुत नहीं किया जाता है तो उम्मीदवार को आयोग द्वारा उम्मीदवारी के लिये 3 वर्ष के लिये अयोग्य घोषित कर सकता है।
लोक प्रतिनिधित्व अधिनियम, 1951 के द्वारा सभी पंजीकृत राजनीतिक दलों द्वारा चुनाव पुरा होने के 90 दिनों के भीतर खर्च का विवरण निर्वाचन आयोग को प्रस्तुत करना होता है।
इसका नकारात्मक पक्ष-
- उम्मीदवारों द्वारा किया गया चुनावी खर्च वास्तविक खर्च से बहुत अधिक होता है यानी उम्मीदवारों द्वारा जो खर्च का विवरण किया जाता है वह सही नहीं होता है,
- वास्तविकता से परे होता है।
- इसका सबसे बड़ा नकारात्मक पक्ष है कि लोक प्रतिनिधित्व, 1951 के द्वारा व्यक्तिगत रूप से उम्मीदवार के लिये चुनावी खर्च की अधिकतम सीमा को तय किया गया है, लेकिन पंजीकृत राजनीतिक दल के लिये इस प्रकार की कोई अधिकतम सीमा निर्धारित नहीं की गयी।
- राजनीतिक दलों के लिये चुनावी खर्च की अधिकतम सीमा को निर्धारित करने हेतु सरकारी स्तर या पंजीकृत राजनीतिक दलों के स्तर पर कोई ठोस प्रयास नहीं हुए हैं।
- इस संबंध में 2019 में एक निजी सदस्य द्वारा संसद में बिल प्रस्तुत किया गया था लेकिन बिल सदन में स्वीकृत नहीं हो सका।
सरकारों द्वारा चुनावी खर्च को रोकने के लिये अन्य प्रयास आवश्य हुए जैसे-
1998 में इन्द्रजीत गुप्ता समिति का गठन किया जाना - जिसने पंजीकृत राजनीतिक दलों के लिये चुनावी खर्च राज्य के कोष(खजाना) से वहन किये जाने की सिफारिश की।
अन्य सिफारिश 1999 में विधि आयोग द्वारा की गई- राजनीतिक दलों को चुनाव के लिये राज्य द्वारा वित्तीय सहायता देना उचित है,
लेकिन राजनीतिक दल अन्य स्त्रोतों से आर्थिक सहायता प्राप्त न करें तथा राज्य के Limited(सीमित) संसाधन एवं देश में बारंबार चुनाव होने के कारण इस सिफारिश को अस्वीकार कर दिया।
आगे की राह-
- भारत जैसे लोकतांत्रिक देश में चुनावी प्रणाली को निष्पक्ष बनाने के लिये चुनावी खर्च को सीमित एवं पारदर्शी बनाये जाने की आवश्यकता है।
- इस संबंध में स्वयं बड़े राजनीतिक दलों को पहल करनी चाहिए।
- सिविल समाज को भी आगे आना चाहिए ताकि जन प्रतिनिधियों के चुनावी खर्च को सीमित कर देश के संसाधनों पर पड़ने वाले अनावश्यक दबाव को कम किया जा सके।
- तकनीकी दौर में चुनावी प्रचार के लिये डिजिटल माध्यमों का प्रयोग कर चुनावी खर्च को कम किया जा सकता है।
- चुनावी खर्च बढ़ने से भारत में बहुत कम लोग ही खर्च की सीमा को तय करने की क्षमता रखते हैं, जिसके कारण सभी के लिये चुनाव लड़ना मुश्किल हो जाता है।
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