न्यायिक पुनरावलोकन (Judicial Review) :- भारत एक लोकतांत्रिक देश है जहां सरकार का चुनाव जनता करती है व सरकार की मनमानी रोकने के लिए भारतीय संविधान में भाग-3 का प्रावधान है जो भारतीय जनता को गारंटी प्रदान करता है।
भारतीय संविधान के अनुच्छेद -13 में बताया गया है कि कौन कौन सा कानून नहीं बनाया जा सकता यानी सरकार द्वारा ऐसा कोई कानून बनाया गया हो जो मूल अधिकारों के खिलाफ है तो ऐसा कानून न्यायपालिका द्वारा शून्य/ रद्द घोषित किया जा सकता है।
न्यायिक समीक्षा(Judicial Review) क्या है :-
भारतीय संविधान में इस शब्द का प्रयोग कहीं भी नहीं है, लेकिन अनुच्छेद -13 के तहत सुप्रीम कोर्ट को यह शक्ति दी गई है कि वह कानूनों को चेक/समीक्षा कर सकता है| यह एक संविधानिकता की जांच होती है|
न्यायिक समीक्षा की शुरुआत 1803 में अमेरिका में एक case हुआ था वहां से इसकी शुरुआत मानी जाती है सामान्य रूप से न्यायिक समीक्षा न्यायपालिका की वह शक्ति है,
जिसके द्वारा वह कार्यपालिका व विधायिका के उन कानूनों तथा आदेशों को असंवैधानिक घोषित कर सकती है जो संविधान के आदर्शों के विपरीत है,
क्योंकि मान लेते हैं कि कोई बहुमत की सरकार तानाशाही का रूप ले ले तो इससे बचने के कई अवसर (जैसे :न्यायिक समीक्षा) होने चाहिए |
न्यायिक समीक्षा सुप्रीम कोर्ट की असाधारण शक्ति है जो कार्यपालिका के मनमाने रवैय से बचाती है तथा भारत में न्यायिक समीक्षा की उत्पत्ति संविधान के अनुच्छेद -13 से हुई है।
भारतीय संविधान का अनुच्छेद 13 क्या है :- मूल अधिकारों से असंगत या उनकी अल्पीकरण करने वाली विधियां :
राज्य ऐसी कोई विधि नहीं बनाएगा जो इस भाग द्वारा प्रदत अधिकारों को छीनती है या न्यून करती है और इस खंड के उल्लंघन में बनाई गई प्रत्येक विधि उल्लंघन की मात्रा तक शून्य होगी
यानी ऐसा कोई कानून जो मूल अधिकारों का उल्लंघन करता है या मूल अधिकारों में कमी करता है तो उसे रद्द सुने किया जाएगा |
न्यायालय किन किन आधारों पर न्यायिक समीक्षा कर सकता है : - न्यायालय किसी भी कानून को रद्द/शून्य घोषित निम्न 3 आधारों पर कर सकता है यानी न्यायालय कानून की न्यायिक समीक्षा 3 आधार आधार पर कर सकता है :-
- वह मूल अधिकारों का उल्लंघन करता हो|
- विधायिका द्वारा उसके अधिकार क्षेत्र के बाहर जाकर बनाया गया हो (जैसे : कोई राज्य सरकार संघ संघ सूची के विषय पर कानून बनाएं, क्योंकि संघ सूची पर कानून बनाने का अधिकार केंद्र सरकार के पास है)
- संवैधानिक प्रावधानों के प्रतिकूल हो( बेसिक ढांचे के खिलाफ)|
केसवानंद भारती मामला, 1973 क्या है :- संसद संविधान के किसी भी भाग में संशोधन कर सकती है, लेकिन संसद संविधान के "मूल ढांचे" में संशोधन नहीं कर सकती जिससे यह संदेश गया कि संविधान सर्वोच्च है इस फैसले के 7 जज पक्ष में थे और 6 जज विपक्ष में थे।
सरकार द्वारा इस फैसले को बदलने का दबाव डाला गया लेकिन यह हो नहीं पाया तथा इसमें नानी पालकीवाला जी का योगदान महत्वपूर्ण रहा।
एडनीर मठ के शंकराचार्य वैसे तो यह मामला हार गए लेकिन इस मामले में सुप्रीम कोर्ट ने जो फैसला दिया वह आज भी लागू होता है यानी आज भी संसद संविधान के मूल ढांचे में संशोधन नहीं कर सकती ।
इस फैसले में सुप्रीम कोर्ट ने संविधान के मूल ढांचे की अवधारणा को बताया।
केशवानंद भारती बनाम केरल राज्य के मामले में सुप्रीम कोर्ट द्वारा 24 वां संविधान संशोधन अधिनियम को मान्यता दी गई जिसमें संसद द्वारा यह कानून बनाया गया कि संसद मूल अधिकारों में संशोधन कर सकती है।
यदि संसद इस तरह का कानून बनाती है जिससे संविधान की मूल भावना (मूल ढांचे का उल्लंघन) समाप्त होती है तो इस प्रकार का संशोधन अवैध होगा और न्यायालय के पास उसे निरस्त करने का अधिकार है।
लेकिन सुप्रीम कोर्ट ने यह स्पष्ट नहीं किया कि संविधान का मूल ढांचा क्या होगा बल्कि बताया कि न्यायालय समय-समय पर अपने सामने आने वाले मामलों की प्राकृति के आधार पर मूल ढांचे को निर्धारित करेगा।
आई. आर. कोहिलोवाद, 2007 क्या है : आई. आर. कोहिलोवाद, 2007 बनाम तमिलनाडु राज्य में सुप्रीम कोर्ट द्वारा कहा गया है कि न्यायिक समीक्षा संविधान के बेसिक ढांचे का हिस्सा है तथा इसी केस में सुप्रीम कोर्ट ने बोला कि 1951 में भारतीय संविधान में जो नौवीं अनुसूची जोड़ी गई है जिसमें व्यवस्था की गई है कि इसमें जो भी कानून जोड़े जाएंगे उनका Judicial Review( न्यायिक समीक्षा) नहीं किया जाएगा,
लेकिन आईआर कोहिलो बाद 2007 बनाम तमिलनाडु राज्य केस में नौवीं अनुसूची की भी न्यायिक समीक्षा की जा सकती है कि 1973 के बाद नौवीं अनुसूची में जितने भी कानून जोड़े गए हैं उनकी न्यायिक समीक्षा की जा सकती है।
न्यायिक समीक्षा शक्ति का प्रयोग कहां-कहां किया गया है(न्यायिक पुनरावलोकन की शक्ति क्या है ) :-
1967 में गोलकनाथ केस में,
1969 में बैंकों के राष्ट्रीयकरण अधिनियम को अनुच्छेद 19 और 31 का विरोधी करार दिया,
1983 में फौजदारी कानून की धारा 303 को अवैध घोषित किया |
फौजदारी कानून की धारा 303 क्या है : किसी व्यक्ति को उम्र कैद की सजा मिली हो, उसके द्वारा किसी व्यक्ति की हत्या की जाती है तो उसे मृत्युदंड दिया जाएगा, सुप्रीम कोर्ट ने इस धारा(धारा -303) को अवैध घोषित किया|
2015 में 99वा संविधान संशोधन अधिनियम( राष्ट्रीय न्यायिक नियुक्ति आयोग ) को असंवैधानिक घोषित किया।
न्यायिक समीक्षा का महत्व क्या है :-
न्यायिक समीक्षा निम्न कारणों से जरूरी है :
- संविधान की सर्वोच्चता के सिद्धांत को बनाए रखने हेतु |
- संघीय संतुलन(केंद्र व राज्यों के बीच संतुलन) बनाए रखने के लिए|
- मूल अधिकारों की रक्षा करने के लिए|
संविधान की सर्वोच्चता :- भारत में संविधान ही सर्वोच्च है कानून संविधान के प्रावधानों व अपेक्षाओं के अनुरूप होना अनिवार्य है और न्यायपालिका ही तय कर सकती है कि कोई अधिनियम संवैधानिक है या नहीं।
जब तक मौलिक अधिकार स्थिति में है और संविधान का हिस्सा है न्यायिक समीक्षा की शक्ति का उपयोग इस दृष्टि से भी आवश्यक है कि इन अधिकारों के द्वारा गारंटी प्रदान की गई है उनका उल्लंघन नहीं किया जा सके।
भारतीय संविधान सर्वोच्च है, देश का स्थाई कानून और सरकार की कोई भी शाखा इसके ऊपर नहीं है चाहे वह कार्यपालिका हो विधायिका हो या न्यायपालिका सबको ही संविधान से ही शक्ति और अधिकार प्राप्त है और उन्हें अपने संवैधानिक प्राधिकार की सीमा में ही रहकर कार्य करना होता है|
कोई भी व्यक्ति चाहे वह कितने भी ऊंचे पद पर क्यों ना हो, कोई भी अधिकारी चाहे वह कितना भी शक्तिशाली हो वह यह दावा नहीं कर सकता कि संविधान के अंदर उसे किस सीमा तक शक्ति प्राप्त है |
इसका न्यायकर्ता वह स्वयं ही होगा, न्यायालय संविधान का अंतिम व्याख्याकर्ता है और इसी न्यायालय को निर्धारण करने की जिम्मेदारी दी गई है कि सरकार की समस्त शाखा को कितनी शक्ति प्राप्त है, कितनी यह सीमित है यदि हां तो इसकी सीमाएं क्या है और क्या उस शाखा की कोई कार्यवाही उस सीमा का उल्लंघन करती है।
संघीय संतुलन बनाए रखना :- केंद्र सरकार अपने क्षेत्र में कार्य करती है व राज्य सरकारें अपने क्षेत्र में कार्य करती हैं दोनों अपनी अपनी हदों में रहकर काम करती है,
जब राज्य केंद्र के क्षेत्रों में हस्तक्षेप करें, केंद्र राज्यों के क्षेत्र में हस्तक्षेप करें तो इस स्थिति को रोकने के लिए दोनों में समन्वय स्थापित करने के लिए विवादों से बचने के लिए शांतिपूर्ण अस्तित्व बनाए रखने के लिए न्यायालय न्यायिक समीक्षा कर सकता है।
मूल अधिकारों की रक्षा : - यह न्यायाधीशों का कार्य व कर्तव्य है कि वह कानून की वैधता के बारे में अपना मत दें यदि न्यायालय अपने इस अधिकार से वंचित हो जाते हैं तब नागरिकों के मौलिक अधिकार आडंबर मात्र बनकर रह जाएंगे क्योंकि उपचार के बिना अधिकार "पानी पर लिखाई जैसा होगा" जिससे संविधान अनियंत्रित हो जायेगा।
सुप्रीम कोर्ट के जो न्यायधीश है उनको संविधान कायम रखने की जिम्मेदारी सौंपी गई है ऐसी स्थिति में उन्हें संविधान की व्याख्या करने की शक्ति प्राप्त है,
उन्हें ही सुनिश्चित करना है कि संविधान में शक्ति संतुलन की जो व्यवस्था की गई है वह बनी रहे और यह की विधायिका तथा कार्यपालिका अपने कर्तव्यों के निर्वहन में अपनी संवैधानिक मर्यादाओं का उल्लंघन नहीं कर पाए।
न्यायिक समीक्षा के लिए संवैधानिक प्रावधान क्या है :- वैसे तो हमारे संविधान में न्यायिक समीक्षा शब्द का उपयोग कहीं नहीं हुआ है, लेकिन कुछ अनुच्छेद के प्रावधान सुप्रीम कोर्ट और हाईकोर्ट को न्यायिक समीक्षा की शक्ति प्रदान प्रदान करते हैं,
यह प्रावधान निम्नलिखित हैं :-
जैसे भारतीय संविधान के अनुच्छेद -13 : सरकार द्वारा ऐसा कोई कानून बनाया गया हो जो मूल अधिकारों के खिलाफ हो है तो ऐसा कानून न्यायपालिका द्वारा शून्य/ रद्द घोषित किया जा सकता है।
अनुच्छेद 32 : यह मौलिक अधिकारों को लागू करने के लिए सुप्रीम कोर्ट जाने की नागरिकों के अधिकार की गारंटी देता है,साथ ही सुप्रीम कोर्ट को शक्ति देता है कि वह इसके लिए निर्देश या आदेश या न्यायादेश जारी कर सके |
अनुच्छेद 131 : केंद्र - राज्य तथा अंतर- राज्य विवादों के लिए सुप्रीम कोर्ट का मूल क्षेत्राधिकार निश्चित करता है|
अनुच्छेद 132 : संवैधानिक मामलों में सर्वोच्च न्यायालय का अपीलीय क्षेत्राधिकार सुनिश्चित करता है
अनुच्छेद 133 : सिविल मामलों में सुप्रीम कोर्ट का अपीलीय क्षेत्राधिकार सुनिश्चित करता है| अनुच्छेद 134 : आपराधिक मामलों में सुप्रीम कोर्ट का अपीलीय क्षेत्राधिकार सुनिश्चित करता है| अनुच्छेद 134-ए : उच्च न्यायालयों से सर्वोच्च न्यायालय को अपील के लिए प्रमाण पत्र(Certificate for appeal) से संबंधित है |
अनुच्छेद 135 : सर्वोच्च न्यायालय को किसी संविधान पूर्व के कानून के अंतर्गत संघीय न्यायालय के क्षेत्राधिकार एवं शक्ति का प्रयोग करने की शक्ति प्रदान करता है |
अनुच्छेद 136 : सर्वोच्च न्यायालय को किसी न्यायालय या न्यायाधिकरण से अपील के लिए विशेष अवकाश प्रदान करने के लिए अधिकृत करता है (सैन्य न्यायाधिकरण एवं कोर्ट मार्शल को छोड़कर) अनुच्छेद 143 : राष्ट्रपति को कानून संबंधी किसी प्रश्न के तथ्य पर या संविधान या किसी संविधान पूर्व के कानूनी मामलों में सुप्रीम कोर्ट की राय मांगने के लिए अधिकृत करता है |
अनुच्छेद 226 : उच्च न्यायालय को मौलिक अधिकारों को लागू करने या किसी अन्य प्रयोजन से निर्देश, आदेश या रिट जारी करने की शक्ति प्रदान करता है|
अनुच्छेद 227 : सर्वोच्च न्यायालय को अपने-अपने अधिकार क्षेत्र में सभी नियमों एवं न्यायाधिकरणों(सैन्य न्यायालयों को छोड़कर) के अधीक्षण को शक्ति प्रदान करता है |
अनुच्छेद 245 : संसद एवं राज्य विधायिकाओ द्वारा निर्मित कानूनों की क्षेत्रीय सीमा तय करने से संबंधित है |
अनुच्छेद 246 : संसद एवं राज्य विधायिकाओ द्वारा निर्मित कानूनों की विषय वस्तु से संबंधित है (जैसे -संघ सूची, राज्यसूची एवं समवर्ती सूची)
अनुच्छेद 251 एवं 254 : केंद्रीय कानून एवं राज्य कानूनों के बीच टकराव की स्थिति में यह प्रावधान करता है कि केंद्रीय कानून, राज्य कानून के ऊपर बना रहेगा और राज्य कानून निरस्त हो जाएगा|
अनुच्छेद 372 : संविधान -पूर्व के कानूनों की निरंतरता से संबंधित है।
न्यायिक समीक्षा का विषय क्षेत्र : किसी कानून या कार्यपालकीय आदेश की संवैधानिक वैधता को सुप्रीम कोर्ट या हाईकोर्ट में निम्न तीन आधारों पर चुनौती दी जा सकती है :-
- यह मौलिक अधिकारों का उल्लंघन करता है,
- यह उस प्राधिकारी की क्षमता से बाहर का है जिसने इसे बनाया है तथा,
- यह संवैधानिक प्रावधानों के प्रतिकूल है।
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