क्योटो प्रोटोकॉल 1997 में जापान के शहर Kyoto में हुआ था UNFCCC - United Nations framework convention on climate change के COP(Conference of Parties) - 3 को ही क्योट प्रोटोकॉल कहा जाता है।
क्योटो प्रोटोकॉल एक बाध्यता की ओर संकेत करता है, क्योट प्रोटोकॉल को जलवायु परिवर्तन और ग्लोबल वार्मिंग के लिए सबसे महत्वपूर्ण समझौता माना जाता है|
यह एक प्रकार से अंतरराष्ट्रीय संधि भी थी, क्योंकि यह उन विकसित देशों के लिए बाध्यकारी है जो इस पर हस्ताक्षर करते हैं|
यदि कोई देश इसकी शर्तों को पूरा नहीं करता है तो वह इससे बाहर भी हो सकता है, जैसे - 2011 में कनाडा क्योटो प्रोटोकोल से बाहर हो गया था।
क्योटो प्रोटोकॉल मैं इस बात पर दबाव बनाया गया कि जिस तरह ग्रीन हाउस गैसों की मात्रा में लगातार बढ़ोतरी हो रही है,
उस बढ़ोतरी के कारण पृथ्वी का औसत तापमान बढ़ रहा है और पृथ्वी के बढ़ते हुए औसत तापमान को ही ग्लोबल वार्मिंग कहते हैं व ग्लोबल वार्मिंग के कारण जलवायु परिवर्तन हो रहा है, इसलिए यदि हमें जलवायु परिवर्तन को रोकना है,
तो ग्लोबल वार्मिंग को रोकना पड़ेगा और ग्लोबल वार्मिंग को रोकना है, तो हमें ग्रीन हाउस गैसों की बढ़ती हुई मात्रा को रोकना होगा तथा हमें ग्रीन हाउस गैसों को रोकना है तो औद्योगिक विकास को कम करना होगा या औद्योगिक विकास के नए विकल्प तलाशने होंगे
यानी हमें इस प्रकार की मशीनरी का निर्माण करना चाहिए जिससे ग्रीन हाउस गैसों में कमी की जा सके।
क्योटो प्रोटोकॉल का अंतिम उददेश्य है कि ऐसी प्रत्येक गतिविधियों को रोकना जिससे पर्यावरण को खतरा पहूंचता हो।
जापान के क्योटो शहर में इस सम्मेलन होने के कारण इसका क्योटो प्रोटोकॉल रखा गया।
क्योटो प्रोटोकॉल के लक्ष्य :-
- आज विश्व में तीन प्रकार (1.विकसित औद्योगिक देश, 2. विकासशील देश, 3. अल्प विकसित देश) के देश हैं|
- विकसित देश लगभग 37 के आसपास है जैसे - USA, जापान, ब्रिटेन आदि ग्लोबल वार्मिंग के लिए ज्यादा जिम्मेदार देश भी यही हैं, क्योंकि इन्होंने जो विकास किया है उससे पृथ्वी का औसत तापमान बहुत बड़ा है और क्योटो प्रोटोकॉल इन देशों को बाध्यकारी बनाता है।
- विकासशील देश जैसे - भारत, ब्राजील, साउथ अफ्रीका आदि जब क्योटो प्रोटोकोल लागू हुआ उस वक्त इनकी स्थिति ज्यादा अच्छी नहीं थी, लेकिन अब स्थिति अलग है जैसे -चीन द्वारा सबसे ज्यादा ग्रीन हाउस गैसों का उत्सर्जन होता है।
- जब यह प्रोटोकॉल लागू हुआ उस वक्त अमेरिका ने इस बात की शर्त रखी थी कि भारत और चीन जैसे - देशों को भी क्योटो प्रोटोकोल में शामिल करना चाहिए,
- लेकिन इन देशों ने BASIC(ब्राजील, साउथ अफ्रीका, इंडिया, चीन) संगठन बनाया इन BASIC देशों ने कहा कि हमारा औद्योगिक निर्माण ही 20 - 30 सालों में ही हुआ है,
- जबकि विकसित देशों का औद्योगिक निर्माण को 100 साल से ज्यादा हो गए, इसलिए आपको सबसे पहले हस्ताक्षर करने चाहिए और हम उसमें सहयोग करेंगे।
- अल्प वकसित देश जैसे - जांबिया, इथोपिया आदि ग्लोबल वार्मिंग में इन देशों का कोई हाथ नहीं है, इसलिए इस प्रोटोकॉल में विकसित देशों को स्थापित करने के लिए बाध्य किया गया है।
- औधोगिक विकसित देश ग्लोबल वार्मिंग को कंट्रोल करने के लिए वर्ष 2008 से 12 तक के मध्य ग्रीन हाउस गैसों में 5.2 प्रतिशत की दर से कमी करते हुए उसे 1990 के स्तर तक लेकर आएंगे।
- यदि कोई देश इस पर हस्ताक्षर करता है तो उसको औद्योगिक विकास में कमी करनी पड़ेगी जिससे उसकी अर्थव्यवस्था पर नकारात्मक प्रभाव पड़ेगा।
क्योटो प्रोटोकॉल की शर्तें :-
1. क्योटो प्रोटोकोल तभी लागू होगा, जब इस पर वे देश हस्ताक्षर करें, जो दुनिया में बड़ी हुई ग्रीन हाउस गैसों के 55% भागीदार हैं,
जैसे - मान लेते हैं 37 देश 100% ग्रीनहाउस गैस उत्सर्जन करते हैं और इनमें से पांच देश ऐसे हैं जो 55% ग्रीन हाउस गैसों के लिए जिम्मेदार हैं, यदि यह पांच देश हस्ताक्षर नहीं करेंगे तो समझौता नहीं होगा।
अमेरिका ने इस समझौते पर हस्ताक्षर करने से मना कर दिया, ऐसे ही रूस ने मना कर दिया, इसी तरह ऑस्ट्रेलिया ने भी मना कर दिया, जब इन देशों ने इस पर हस्ताक्षर करने से मना कर दिया तो, जो समझौता दिसंबर 1997 में होना था, उसे होने में 8 साल लग गए,
फिर 2004 में रूस ने इस पर हस्ताक्षर कर दिए, जिससे क्योटो प्रोटोकोल प्रोटोकॉल की शर्तें बिना अमेरिका के हस्ताक्षर किए लागू हो गई, क्योटो प्रोटोकॉल 16 फरवरी, 2005 से लागू हो गया।
2. क्योटो प्रोटोकॉल का टारगेट 2008 से 2012 तक था क्योटो प्रोटोकोल देर से लागू होने के कारण इसके टारगेट पूरे नहीं हो सके और 2013 से इसके स्थान पर पेरिस समझौता लागू हो गया।
स्वच्छ विकास तंत्र(Clean development mechanism - CDM) क्या है :- यह क्योटो प्रोटोकॉल की एक संकल्पना है, जिसके अंतर्गत विकसित देश विकासशील देशों में इस प्रकार का आर्थिक व तकनीकी निवेश को बढ़ावा देंगे,
जिससे ग्रीन हाउस गैसों की मात्रा में कमी की जा सके और ग्लोबल वार्मिंग पर कंट्रोल कर, जलवायु परिवर्तन को रोका जा सके, जैसे - जापान द्वारा भारत में दिल्ली मेट्रो बनाना और दिल्ली मेट्रो द्वारा बहुत कम प्रदूषण होता है।
कार्बन ट्रेडिंग क्या है :- इसे उत्सर्जन व्यापार भी कहते हैं, यह क्योट प्रोटोकॉल की संकल्पना है, जिसके अंतर्गत प्रत्येक विकसित देश को ग्रीन हाउस गैसों की मात्रा में कमी करने का और पर्यावरण संरक्षण के लिए उठाए गए कदमों का एक लक्ष्य दिया गया है और प्रत्येक औद्योगिक विकास राष्ट्र का लक्ष्य अलग-अलग है,
वे अलग-अलग लक्ष्यों को पूरा कर क्योटो प्रोटोकॉल के लक्ष्य को पूरा करते हैं जैसे - मान लेते हैं कनाडा को 3% लक्ष्य दिया गया और यदि इसे वह पूरा करता है तो उसे 300 अंक मिलेंगे, लेकिन कनाडा 3% की जगह 4% लक्ष्य हासिल कर लेता है तो उसे 400 अंक दिए जाएंगे।
क्योटो प्रोटोकॉल का उद्देश्य :-
- पर्यावरणीय वैज्ञानिकों के अनुसार ग्लोबल वार्मिंग का कारण ग्रीनहाउस गैस उत्सर्जन व मानव निर्मित CO2 का उत्सर्जन है।
- क्योटो प्रोटोकॉल के तहत औधोगिक विकसित देशो को ग्रीन हाउस गैस को कम करने के लिए बाध्य किया गया है तथा इन देशों को क्योटो प्रोटोकॉल के टारगेट 2008 से 2012 के मध्य 5.2 प्रतिशत की औसत से ग्रीन हाउस गैस कम करनी है और वर्ष 1990 के स्तर तक लाना है।
- इसका उद्देश्य बाध्यकारी समझौता साबित करना है जिसमें सभी देशों को ग्लोबल वार्मिंग और ग्रीनहाउस गैस उत्सर्जन को कम करने के लिए खुद को प्रतिबद्ध करना है।
- क्योटो प्रोटोकॉल का अंतिम लक्ष्य ऐसी हर मानवीय गतिविधियों पर रोक लगाना है, जिससे पर्यावरण के लिए खतरा होता है।
- उत्सर्जन कम करने के लिए उद्योग पर विपरीत प्रभाव ना पड़े इसके लिए सीडीएम की संकल्पना को अपनाया गया है।
1. Annex(Annex-1, Annex-2) देश
2. Non Annex देश
Annex-1 देश :- इसमें OECD (आर्थिक सहयोग विकास संगठन) के सदस्य शामिल है जिसमें 37 देश हैं और यह सभी देश विकसित है, यूरोपीयन यूनियन के सदस्य भी शामिल किए गए हैं यानी Annex-1 में सभी विकसित देश हैं जिनको दायित्व दिया गया है कि वे ग्रीन हाउस गैसों को कम करें।
Annex -2 देश :- Annex-1 के ही कुछ देशों को जिम्मेदारी दी गई है कि वे Non-Annex देशों को आर्थिक व तकनीकी सहायता दें ताकि यह ग्रीन हाउस गैसों को कम कर सकें।
Non - Annex देश :- इसमें विकासशील व अल्प विकसित देश शामिल है जिन्हें कार्बन उत्सर्जन के लिए बाध्य नहीं बनाया गया, बल्कि इनको सहयोग के लिए कहा गया है।
क्योटो प्रोटोकॉल में विस्तृत नियम COP-7, 2001 में मोरक्को में स्थापित में अपनाए गए।
क्योटो प्रोटोकॉल में कितनी गैसों को शामिल किया गया हैं :- इसमें 6 गैसों को शामिल किया गया है :-
- CO2,
- मिथेन,
- हाइड्रो फ्लोरोकार्बन,
- नाइट्रस ऑक्साइड,
- सल्फर हेक्साफ्लोराइड,
- पेरपफ्लूरो कार्बन ।
भारत और क्योटो प्रोटोकोल :-
भारत को ग्रीन हाउस गैस उत्सर्जन के लिए बाध्यकारी नहीं किया गया है, लेकिन भारत द्वारा ग्रीन हाउस गैस उत्सर्जन को कम करने के लिए विकसित व विकासशील देशों के बीच जो टारगेट दिया गया है,
उसको पूरा करने पर जोर दिया गया है और कहा की विकसित देशों को क्योटो प्रोटोकोल से जुड़े, ग्रीन हाउस गैसों को कम करने की जिम्मेदारी लेनी चाहिए।
चुनौतियां :-
चीन दुनिया का सबसे बड़ा ग्रीन हाउस गैस उत्सर्जन करने वाला दुनिया का सबसे बड़ा देश है और अमेरिका दूसरे नंबर पर आता है, लेकिन यह दोनों ही इस संधि से बंधे हुए नहीं है,
क्योंकि चीन विकासशील देश है इसलिए वह बाध्यकारी नहीं है और अमेरिका अपनी स्थिति के कारण इस प्रोटोकॉल की पुष्टि नहीं करता है।
इस समझौते में अपनाई गई प्रतिबद्धताओं में खरा नहीं उतरा जा रहा है।
क्योटो प्रोटोकॉल में दोहा संशोधन :-
8 दिसंबर, 2012 दोहा कतर में आयोजित क्योटो प्रोटोकोल की पहली प्रतिबद्धता 2012 में समाप्त होने के कारण इसमें संशोधन किया गया, जिसमें ग्रीन हाउस गैस को कम करने के लक्ष्य को पूरा करने के लिए दूसरी प्रतिबद्धता अपनाई गई, जिसकी अवधि 2013 से 2020 रखी गई।
अक्टूबर, 2020 तक 147 पार्टियों ने अपनी स्वीकृति प्रस्तुत की जिससे यह पता लगता है कि दोहा संशोधन के लागू होने की सीमा को पूरा कर लिया गया है।
भारत इसे स्वीकार करने वाला 80 वा देश है, कनाडा 2012 में क्योटो प्रोटोकोल से हट गया
135 देश दोहा संशोधन को स्वीकार कर चुके हैं तथा 144 देशों को दोहा संशोधन स्वीकार करना होगा।
क्योटो प्रोटोकॉल के लिए बाध्यकारी देश 37 है जिसमें केवल 7 देशों ने इसकी पुष्टि की है।
क्योटो तंत्र क्या है :- यह क्योटो प्रोटोकोल का एक महत्वपूर्ण तत्व है जिसने एक लचीले बाजार तंत्र की स्थापना की, जो उत्सर्जन परमिट के व्यापार पर आधारित है।
देशों को मुख्य रूप से राष्ट्रीय उपायों के माध्यम से अपने लक्ष्य को पूर्ण करना चाहिए।
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